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डा० श्रीराम शर्मा

अशोक जी से पहले माई साहंब(श्री हरिशंकर शर्मा,रिटायर्ड डीएएसं0पी0
आईए0बी0) और माईसाहब से भी पहले अपने गाँव (नगलादान सहाय)
की बातें याद आना स्वामाविक है। क्योंकि माईसाहब जब 970 ई0 में
अलीगढ़ आये,तब तक आई0बी0 के डी0एस0पी0 की पोस्ट अलीगढ़ मैं
नहीं थी,968 में दिल्‍ली से बुलन्दशहर बड़े लड़के के लिए लड़की देखने
जाते समय भाई साहब का पूरा परिवार नष्ट हो चुका था। इसी आधार पर
आंतरिक सुरक्षा विभाग ने अलीगढ़ में डीएएस0पी0 की पोस्ट क्रिएट
करके भाई साहब की पोष्टिंग दिल्‍ली से अलीगढ़ की थी |जब मैं छोटा था
तभी ॥945 ई0 में भाई साहब की पोस्टिंग दरोगा के रूप में हुई थी,तब
भाई साहब घोड़े पर सवार हो गाँव पहुँचे थे तब अंग्रेजीराज था और पुलिस
के दरोगा जैसी पोस्ट भी जमींदार घरानों के लोगों को ही दी जाती थी।
जब १857में लगसमा के जाटों ने अंग्रेजी राज के खिलाफ विद्रोह किया था,
तब गहलऊ के अमानी ने पास के गाँव भैंमती पर चढ़ाई कर दी थी लूट-
पाट मचाने के लिए। उस दिन भैंमतीं में फूलडोल था,जिकड़ी भजनों की
(रस्याई की) इलाके भर की मण्डली एकत्र हुई थीं। उत दिन मेरे बाबा
(बौहरे नथाराम) ने उस दिन की घटना को आघार बनाकर एक जिकड़ी
भजन बनाया था, जो मैंने अपने शोध कार्य के दौरान सुना था –
कंछु ग्यानु गुनी मुख भारवाँ |
X X X
फूलडोल में झीवटौरे है, रश्याई को धाएयों है।
भौरें पे ते कह्टे बौहरे जिय का बादर फारयी है।
[सो परि)लई अमानी चौकस घोड़ी,चकस भरै तड़ाकौ कछु ग्यान गुनी |
857 से पहले लगसमा के जाटों को चुन-चुनकर दान सहाय नगर बबूलों
के वृक्षों पर फाँसी दी गयी थी। उन दिनों दानसहाय नगर जाटों की बस्ती
हुआ करती थी। उसका प्रमाण था मेरी हवेली के सामने जो चबूतरा था,
आज भी जाटों का चबूतरा कहकर पुकार जाता हैं। उसके बाद जाट तो
खाली कर गये और मेरे पूर्वजों ने गाँव की चार आने भर जमींदारी खरीद
लीं, कुछ पाठक खानदान के लोग पास के गाँव बलभद्गपुर में और कुछ
परिवार दानसहाय नगर में आकर बस गये। हमारा मूल निवास बयाना
(जिला भरतपुर) का है वहाँ बयाना के आसपास पाठकों के घर अब भी
चले आ रहे हैं। तब मुगलकाल से पूर्व बयाना का परगना इतिहास का
केन्द्र बना हुआ था | क्योंकि उसमें अनेक बार तुर्कों के आक्रमण हुए थे,
हमारे पूर्वज वहाँ से ऐसे ही किसीं अभियान के समय 050 ई0 के आस-
पास पहले भरतपुर के ही किसी गाँव में स्थानान्तरित होकर वर्तमान ग्राम
नगला बान सहाय में आये थे | 858 ई0 में इस तरह गाँव की आबादी
में एक चौथाई भाग में मेरे परिवार के लोग बसे, फिए पड़ोस के रान्हा
गाँव के जमींदारों में से दो ब्राह्मण परिवारों की जमींदारी मेरे गाँव में थी।
वे भी रान्हा गाँव से आकर दान सहाय नगर में बस गये | ये विर्थरे थे।
इन्हीं में हीरासिंह नाम के भाई साहब (स्व0 हरिशंकर शर्मा) के बाबा
थे। एक तीसरे ब्राह्मण परिवार मुड़सेनियाँ थे, जो गाँव के एक चौथाई
भाग में सब गये थे। इस तरह तीन ब्राह्मण परिवार पाठक, बिस्थरे और
मुड़सेनियाँ मेरे गाँव में थे।इनके पूर्वी किनारे पर बसे एक चौथाई में कुछ
जाटव परिवार। मेरे बाबा ने अपनी हवेली के पीछे दो कोली (तन्तुवाय –
वैश्य) लोगों के परिवार बसा लिये थे, जो मोटा कपड़ा बुनते थे। उनके
पड़ौस में ही दो तेलियों के परिवार आकर बस गये थे,जिनमें बहादुर के
परिवार की जमीन खित) भैंमती ग्राम में थी। तो इस तरह ब्राह्मण,जाटव,
कोली ओर तेली चार जातियाँ मेरे गाँव में बसी थीं। यह दानसहाय नगला,
बराबर के मौजा बड़ा गाँव अकबरपुर (तहसील कोल) का माजरा था।
चूँकि बड़ागाँव गुजराती परिवारों की जर्मीदारी में था,जो अलीगढ़ शहर
में रहते थे, उनका कारिन्दा पं0 होत्तीलाल,वहीं बड़ा गाँव में रहता था।
अलीगढ़ से गोण्डा जाने वाला दगड़ा ैलगाड़ियों का रास्ता)बड़ागाँव से
होकर गुजरता था, उस पर फगोई और भीमपुर गाँवों से गुजरने पर
घुटनों रेता था अर्थात्‌ बड़ी रेतीली जमीन (मूड़रा) था, जिसके कारण
साईकिल भी नहीं चल पाती थी | गाँव का कोई बालक अलीगढ़ पढ़ने
आता था तो पैदल चलकर ही अलीगढ़ पहुँच पाता था। इस तरह यह
एकतरह बड़ा पिछड़ा इलाका था।यह दगड़ा गौण्डा होकर गोरई (तह-
सील इगलास) होकर सीधा वृन्दावन (जिला मथुरा) जाता था।
इस प्रकारं भाई साहब जब पुलिस में दरोगा हुए तो बर्तानियाँ सरकार का
राज था।बाद में भाईसाहब सी0आईएडी0 में चलें गये तब भारत आजाद
हुआ था। सन्‌ 4948 में भारत सरकार को राशनिंग व्यवस्था लागू करनी
पड़ी, उन दिनों भाईसाहब अलीगढ़ में ही तैनात थे। बाद में आईएबी0में
चले गये और प्रमोशन पाकर डीएएसएपी0 बन गये। उनकी पोस्टिंग
दिल्‍ली के आई0बी0 मुख्यालय में थी। तो भाईसाहब के दिल्‍ली पोस्टिंग
के समय ही सड़क दुर्घटना में आशा (अशोक जी के साथ जिसका बाद
में विवाह हुआ) ही बची थी, उप्तकी टॉँग में डिफेक्ट उसी दुर्घटना में
चोट खा जाने के कारण आ गया था। तो 4970 तक आते-आते आशा
(भाईज्नाहब की लड़की) सयानी हो गयी थी, उसके लिए वर खोजते
हुए भाईसाहब हाथरस नगर के जैन गली के ज्योतिषाचार्य पंडित बैजनाथ
जी तक पहुँच गये थे। अशोक जी पं0 बैजनाथ जी के बड़े बेटे थे। तब वे
हाथरस के बागला कॉलिज में बी0ए0 में पढ़ते थे।उन्हीं दिनों डा0कृष्ण
चन्द्र खेमका हिन्दी विभाग के बड़े प्रेरणाप्रदायक प्रोफेसर थे |उन्होंने
अशोक शर्मा को हिन्दी साहित्य में आगे पढ़ने की प्रेरणा दी और कहा
कि इलाहाबाद विश्वविधालय से एमएए)(हिन्दी) से करने का मजा ही
कुछ और है। इन्हीं के कुछ समय पूर्व डा0 खेमका श्रीरामस्वरूप शर्मा
को भी दिल्‍ली भेज चुके थे, जो वहाँ किसी महाविद्यालय में हिन्दी
प्राध्यापक हो गये थे। क्षमा शर्मा, जो दिल्‍ली की प्रमुख पत्रकार और
हिन्दी साहित्यकार हैं, वे इन्हीं रामस्वरूप शर्मा की छोटी बहिन हैं।
तो अशोक जी उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम्प्ाए0(हिन्दी)
करके विभागाध्यक्ष डाए लक्ष्मीसागर वाष्णैय के निर्देशन में पी-एच0-
डी0 कर रहे थे। ये डा0 लक्ष्मी सागर वाष्णेंय भी अलीगढ़(कपरकोट)
के रहने वाले थे और भाईसाहब (स्व0 हरिशंकर शर्मा)के साथ पढ़े थे।
उन दिनों धर्म समाज’कॉलिज के प्राचार्य स्का) डूँगरमल गुप्त थे,वे
भी भाईसाहब के सहपाठी रह चुके थे |धर्म समाज कॉलिज की प्रबन्ध
समिति के तत्कालीन अध्यक्ष, सवा) कर्मेन्द्र नाशयण अग्रवाल भी
भाईसाहब के मिलने वालों में रहे थे। अशोक जी धर्म समाज कॉलिज
में प्रवक्‍ता बनने से पूर्व इलाहाबाद के साहित्यिक वात्तावरण में 4-8
वर्ष रहकर आये और वहाँ गहमरी जी,कैलास गौतम [साहित्यकारों)
के सम्पर्क में रहे थे। उन्हीं
दिनों दो वर्ष पूर्व ड्वा0 वेदप्रकश अमिताभ और डा0 सियाराम उपा-
ध्याय भी (970) में हिन्दी विभाग में आ चुके थे । वनस्पति विज्ञान
विभाग के अध्यक्ष श्री सुरेशचन्द्र श्रेत्रिय अशोक जी के रिश्तेदार ही थे।
उन्हें भी कविता रचने का शौक था। फलतः 4968 में मेरे हिन्दी
विमाग में आने के तीन चार वर्षों में ही हिन्दी विभाग में पाँच दिग्गज
अध्यापक हो गये थें। उन्हीं दिनों श्री छैलबिहारी गुप्त (डीएएसएबी0
कॉलिज, नैनीताल) के प्राचार्य, आगरा विश्वविद्यालय की विषय
समिति के कन्चीनर थे और फैकल्टी के सदस्य थे डा0मनोहर लाल
गौड़ मेरे पूर्व विभागाध्यक्ष, उन दिनों विषय समिति के सदस्य थे |
डा0 राकेश गुप्त के प्रयास से सामान्य हिन्दी एक विषय के रूप में
पढ़ायी जाने लगी तो डा0 सियाराम उपाध्याय की लोकप्रियता के
कारण बच्चे सामान्य हिन्दी में दौड़कर आ गये। इस कारण अंग्रेजी
विभाग के डा0 टीकाराम शर्मा आदि सबको हिन्दी विभाग से ईर्ष्या
होने लगी | डीएएम0 गुप्त उन दिनों अंग्रेजी विभाग के हैड थे और
प्रिन्सीपल बने थे |वे कॉलिज में सीनियर मोस्ट थे। अतः पूरे कॉलिज
के अध्यापक उनका सम्मान करते थे | उन दिनों गोपालदास नीरज
भी हिन्दी विभाग मैं पढ़ाते थे। डॉ0 गौड़,डा0 गोपालदत्त सारस्वत
और नीरज जी तीन अध्यापक थे और तीनों तीन दिशाओं में चलते थे।
नीरज जी तो भारत प्रसिद्ध कवि थे,उन्हें कवि सम्मेलनों से ही फुरसत
न थी और डा0 सारस्वत अधिक अच्छे लोकप्रिय अध्यापक नहीं थे।
मैं चूँकि विभाग का ही शिष्य रहा था,इसलिए दोनों में तालमेल बिठाने
की जिम्मेदारी निमाता था। तो जब अंग्रेजी विभाग ने सामान्य हिन्दी
एक पृथक विषय होने के बाद ईर्ष्या करना शुरू किया तो राजनीति
शुरू हुई और नीरज जी के समर्थक डा0 गहराना (राजीति विज्ञान
विभाग के अध्यक्ष) और उपप्राचार्य के साथ मिलकर यह रणनीति
बनायी गयी कि हिन्दी विमाग लोकप्रिय न होने पाये, इसे कमजोर
ही रहना चाहिए।
उस वातावरण में अशोक जी एक लोकप्रिय अध्यापक के रूप में
अवतरित हुए | उन दिनों धर्म समाज कालेज का हिन्दी विभाग
सक्रिय साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र बन गया था और जब ॥970
में कालेज नीरज जी को छोड़ना पड़ा तब प्रो0 अवस्थी, डा0 प्रेम
कुमार, प्रभाकर शर्मा और डा0 रमेशचन्द्र शर्मा आये। तब हिन्दी
विभाग आर्द्स फैकल्टी का एक सशक्त विभाग बन गया था। इसी
बीच 4974-4978 तक आगरा विश्वविद्यालय में श्री बालकृष्ण राव
कुलपति के रूप में आ गये थे। अस्तु,अशोक जी के साथ जो अंब
तक दो नाते थे,एक भतीजी (आशा)के पति के रूप में और विभा-
गीय सहयोगी के रूप में, एक तीसरा नाता ॥978 ई0 में प्रारम्भ
हुआ, जिसमें मैं विभागाध्यक्ष के रूप में अत्यनत अच्छे परिश्रमी
अध्यापक के साथ-साथ यह भी अपेक्षा करने लगा कि मेरे सहयोगी
भी पूरी सामर्थ्यभर झुचेष्टा करके पढ़ायें। इसमें कोई सन्देह भी नहीं
कि विभाग ने टीम भावना से कार्य कर आगरा विश्वविद्यालय के श्रेष्ठ
कालेजों की तुलना में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी पठन-पाठन का वातावरण बना
दिया था। इस पर डा0 वेदप्रकाश अमिताम’ और डा0 अशोक
शर्मा की जोड़ी पर तो हम सबको ही गर्व था। ये दोनों एक-सी कद
–काठी के, समवयस्क तो थे ही प्रमावी व्यक्तित्व के भी दोनों ही
धनी थे। कई बार त्तो इनमें अशोक जी की जगह अमिताम जी को
और अमिताम जी की जगह अशोक को समझने की मूल भले-
मले कर बैठते थे। उन दिनों विभाग जिस ऊँचाई पर पहुँचा हुआ था,
उत्तका स्मरण कर सुखद अनुभव होता है और वे दिन याद करता हूँ
कि अच्छा लगता है। डाए शान्ति स्वरूप गुप्त उन दिनों कालेज के
प्राचार्य थे। कालेज में अनुशासन उच्च कोटि का था। मैं चूँकि कालेज
का ही प्रोडक्ट था,अत्त: जब कहीं पत्ता भी खड़कता तो एक मिनट
में वहीं घटना स्घल पर होता | डा0 गुप्ता भी मूलतः अच्छे संस्कारों
में पले-बढ़े, एकेडेमीशियन थे। उन दिनों मेरे सेवाकाल का स्वर्णिम
युग था। नकल का नाम नहीं था|सभी बड़ी ईमानदारी से काम करते
थे | काम करने का बड़ा उत्साह रहता था।
किन्तु दुर्भाग्यवश डाए शान्ति स्वरूप गुप्त को 58 वर्ष आयु मेँ अव-
काश ग्रहण करना पड़ा, तब तो हम सभी अध्यापकों के सपने
चकनाचूर हो गये और घर्म समाज कालेज का पतन शुरू हुआ जो
अब तक चला आता है। अब तो अशोक जी इस संसार को अलविदा
कहकर चले ही गये। वेदप्रकाश जी, रमेशजी,अवस्थी जी अवकाश
ग्रहण कर गये। हीं, सियाराम उपाध्याय जी जल्दी चले गये। इसका
दुःख हम सभी को था | अशोक भी जल्दी ही चले गये, किन्तु वे
अग्ीमित प्रतिभा के धनी थे। इसलिए उनका जाना बहुत खला। इस
पर तुलसीदास की तरह “मोहि तोहि नाते अनेक’के कारण मेरा उनसे
कई तरह का नाता था। हाँ,विमागाध्यक्ष के रूप में उनसे विचार मत-
मेंद मी था। आशा के विवाह के बाद तो दाम्पत्य सम्बन्धों में तनाव आ
जाने पर मैं भी प्रमावित हुआ किन्तु अशोक जी की समझदारी से सब
कूछ,कुछ ही दिनों में ठीक हो गया था।
ड्ा0 अशोक शर्मा इलाहाबाद विश्वविद्यालय की उपज थे,अतः वहाँ
के साहित्यिक वात्तावरण सेआये थे |वैसे भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय
का उन दिनों विभाग बहुत-से प्रसिद्ध लेखकॉ-प्राध्यापकों से सभी
प्रकार सम्पन्न था|डा0 रघुवंश उन दिनों अवकाश प्राप्त कर चुके थे।
डा0 उमाशंकर शुक्ल, डा0 लक्ष्मी सागर वाष्णैय, डा0 जगदीश
गुप्त,प्रो0 राम स्वरूप चतुर्वेदी, जैसे दिग्गज, अध्यापकों का स्नेह
श्रीअशोक जी को प्राप्त रहा था। इतने बड़े साहित्यिक परिवेश से लौटे
डा0अशौक शर्मा नवगीत की विद्या में रचे-बसे थे और काव्य गोछ्ठि-
यों के ‘हीरो’ बन गये थे। अशोक जी वैसे भी ‘जीनियस’ लोगों मेँ
से थे। स्वयं उनके पिता जी पं बैजनाथ शर्मा स्वयं बहुत बड़े ज्योतिषी
और ज्योतिष विद्या की वेघशाला उन्होंने अपने घर पर ही लगा रखी
थी। वे सचमुच ज्योतिषाचार्य भी थे और खगोलविद्‌ आविष्काकरों के
कर्त्ता के रूप में प्रसिद्ध थे। पं) अशोक शर्मा को ज्योतिष विद्या इन्हीं
पैतृक संस्कारों के कारण मिली थी और अपने पिताजी के निधन के
बाद त्तो बाकायदे वै उनकी गद्‌दी पर बैठे थे।उन्होंने ज्योतिष को बड़े
वैज्ञानिक स्तर पर प्रतिष्ठित किया था। विभाग में सुयोग्य अध्यापकों मैं
उनकी गिनती थी। वै कवि,अच्छे अध्यापक,मौलिक प्रतिमा के धनीं
रचनाकार और ज्योतिष विद्या के पारंगत विद्यान के रूप में उनकी
ख्याति थी। बाद में 4998 में जब मैंने अवकाश प्राप्त किया तब डा0
अशोक शर्मा मेरे 42-43 वर्ष बाद तक विभाग में सीनियरमोस्ट
प्रोफेसर रहे किन्तु 2009 में वेदप्रकाश जी के साथ ही रिटायर हुए।
वे इससे पूर्व ही कनाडा तक जा चुके थे। मागवत्त के कुशल कथाव-
कक्‍ता के रूप में उन्हें अच्छी ख्याति मिली थी।उन्होंने कनाडावासी
भारतीय अप्रवास्तियों के द्वारा प्रेरणा और सहयोग मिल जाने के
कारण फं0बैजनाथशर्मा प्राच्य शोध संस्थान की स्थापना की थी और
उसी के तत्वावधान में ‘प्राच्य मंजूषा’नाम शोघ पत्रिका का प्रकाशन
भी शुरू कर दिया था,किन्तु विधाता को यही सब मंजूर था। वें हरि-
दासपुर के वल्देव छठ के मेले में ज्योतिष पर व्याख्यान देते हुए ही
उन्हें हार्ट अटैक हुआ और वहीं देहान्त हो गया।सब कुछ चन्द मिनटों
में ऐसा कुछ हो गया कि उनके शव को देखकर यह लगता ही नहीं था
कि उनकीआत्मा दिवंगत हो गयी हो |ऐसे जीवंत व्यक्तित्व के धनी थे
डा0 अशोक शर्मा ।

पूर्व विभागाध्यक्ष (हिन्दी)
चर्म समाज कॉलिज, अलीगढ़

June 23, 2022

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