(मानव सेवा सोसाइटी, वैनकूवर, कनाडा में दिये गये भाषण का सारांश)
प्रायः बोलचाल में लोग कहते हैं, अहंकार बुरी चीज़ है, भले लोगों को अहंकार से बचना चाहिये । पण्डित और महात्मा कहते हैं अहंकार छोड़ो । मैं सोचता हूँ कि आख़िर यह अहंकार ऐसी क्या चीज़ है जिसे छोड़ने के लिये सदियों से इतना जोर दिया जा रहा है, फिर भी यह नहीं छूटता । सामान्यतः अभिमान और घमण्ड को इस का पर्याय समझा जाता है । किन्तु भाषा विज्ञान बताता है कि कोई भी शब्द किसी का पूर्ण पर्याय नहीं होता । आज इन तीनों के अर्थ के साम्य और अन्तर पर विचार करेंगे ।
अहंकार का शाब्दिक अर्थ है अहं की स्वीकृति या अपने होने की अनुभूति (feeling of self existence) । दूसरे शब्दों में ‘मैं हूँ’ यह महसूस करना ही अहंकार है । अपने होने की अनुभूति एक सापेक्षिक क्रिया है । यह अनुभूति हमें तभी होती है जब हम अपने से पृथक् किसी व्यक्ति, वस्तु, भाव या विचार को अनुभव करते हैं । अब सोचें कि क्या हम अनुभूति-मुक्त हो सकते हैं ? यदि हाँ, तो अहंकार से भी मुक्त हो सकते हैं; यदि नहीं तो अहंकार-मुक्त भी नहीं हो सकते । मेरा विचार है कि कोई व्यक्ति यदि अहंकार मुक्त है तो वह निश्चित रूप से कब्र में या चिता पर लेटा होगा । जीवित प्राणी अहंकार मुक्त नहीं हो सकता । यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । पहले हम अपने से इतर संज्ञाओं का अनुभव करते हैं फिर अपने होने को अनुभव करते हैं । प्रकृति के सापेक्ष जब उस जगन्नियन्ता ने अपने को अनुभव किया तभी यह इच्छा हुई एकोऽहं बहुस्याम् । तब स्रष्टि का निर्माण हुआ । यह प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से अनवरत और स्वतः सभी में चलती है । चूँकि यह अनायास प्रक्रिया है, इसकी गति स्वतः स्फूर्त होती है । इसे किसी अतिरिक्त बल (ऐक्सीलरेशन) की अपेक्षा नहीं होती । अतः यह सतोगुणी है । यह तो ईश्वर का वरदान है । इसमें कुछ भी बुरा नहीं है । अहंकार कभी किसी के दुःख का कारण नहीं हो सकता । अपितु अपने होने की अनुभूति हमें एक प्रकार की सुखानुभूति कराती है । इसी को फ़ारसी में ख़ुद (अहं) कहते हैं । इस ख़ुद से ही खु़दी (अहंकार) और ख़ुदा (ब्रह्म) बनते हैं । किसी शायर ने कहा है-
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तदबीर से पहले
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूँछे, बता तेरी रजा क्या है ।
अहं (ख़ुद) को प्राचीन भारतीय मनीषा ने तो ब्रह्म (ख़ुदा) ही कह दिया है अहंब्रह्मास्मि, सोऽहं । मंसूर ने इसी विचार को ‘अनहलक़’ के रूप में व्यक्त किया । फिर इसे छोड़ने का आग्रह क्यों ? इसे तो और बुलन्द (विस्तृत) करने का प्रयास करना चाहिये ।
विसर्जन करने (बिखेरने) से ख़ुदी बुलन्द होती है । जब हम किसी की सहायता कर रहे होते हैं तो वास्तव में हम अपने को (अहं को) विसर्जित कर रहे होते हैं । उसे दूसरों में बिखेर रहे होते हैं । इस सहयोग की भावना में पहले हम किसी अवस्था विशेष या विषम परिस्थिति में दूसरे के होने को अनुभव करते हैं फिर अपने को उस अवस्था में होने का अनुभव करते हैं । इसके बाद सहयोग की क्रिया होती है । इस क्रिया में हम किसी दूसरे को विषम परिस्थिति से नहीं अपितु अपने को उस अवस्था या परिस्थिति से मुक्त कर रहे होते हैं । तदुपरान्त दूसरा हमारे होने को अनुभव करता है । इस तरह दूसरों को अनुभव करने से हमें तो हमारे होने का अहसास होता ही है दूसरे को भी हमारे होने की अनुभूति होती है । जब हम किसी अन्धे को हाथ पकड़ कर सड़क पार कराते हैं या किसी बुज़ुर्ग के लिये बस की सीट छोड़ देते हैं अथवा बोझ उठाने में किसी कमजोर का हाथ बटाँते हैं तो भी हमें इसी अहं की (अपने होने की) अनुभूति होती है । यह अनुभूति बड़ी सुखद होती है । यह दूसरों में बिखेरने ( शेयर करने ) से विस्तृत (बुलन्द) होती है । इसीलिये हर देश, हर जाति, हर सम्प्रदाय और हर संस्कृति में सहायता, कृपा, सदाचार, सदाशयता, मधुरभाषण आदि को मनुष्य का भूषण माना गया है । हमारे होने की यह अनुभूति हमें ही नहीं दूसरों को भी आनन्द देती है । यही धर्म का रहस्य है । महाभारत युद्ध के अन्त में भीष्म ने युधिष्ठिर को जिस धर्म का उपदेश किया, उसका अर्थ भी यही है । भीष्म ने कहा था आत्मनः प्रतिकूलानि मा परेषु समाचरेत् । जो अपने अनुकूल न हो वह दूसरों के साथ मत करो । आत्मनः प्रतिकूलानि = जो अपने अहं को ठेस पहुँचाने वाला हो । क्यों कि अपने अहं को ठेस पहुँचाने वाला व्यवहार ही अपने प्रतिकूल होता है । ध्यान रहे यह अहं ही आत्मा है । आत्मा सब के भीतर एक जैसी है, अहं भी सब के भीतर एक जैसा होता है । इसलिये मत अपने अहं को ठेस पहुँचने दो और मत दूसरे के अहं को ठेस पहुँचाओ । यही अहिंसा है जो परम धर्म है । यह तभी संभव है जब हम अपने साथ-साथ दूसरे के अस्तित्व को भी अनुभव करें । जैसा दूसरा है वैसा ही मैं भी हूँ या जैसा मैं हूँ वैसा ही दूसरा भी है । यही सुखद जीवन का रहस्य है । यही धर्म है ।
अहं बुलन्द होगा तो आत्मा भी बुलन्द होगी । जिसे अपने होने का, अपने अस्तित्व का बोध है उसी को आत्म बोध भी होता है । और अपने अस्तित्व का बोध तभी होता है जब दूसरों के अस्तित्व का बोध होता है ।
आदर, नम्रता या प्रेम आदि भी मनुष्य के ऐसे ही गुण हैं जिनसे उसके अहं का विसर्जन होता है । अपनी नम्रता से, किसी का आदर करने से या किसी को प्रेम करने से हम अपने अहं को दूसरों के साथ शेयर करते हैं । उसके अहं के साथ अपने अहं को जोड़ते हैं । या कहें उसके अहं में जगह बना कर अपना अहं उसमें विसर्जित करते हैं । तभी सहन शक्ति, क्षमा, सहभागिता, सद्भाव आदि उत्पन्न होते हैं । इस से ही ख़ुदी बलन्द होती है । जब यह ख़ुदी बुलन्द होती है तो प्रेम, आदर, नम्रता, कृपा और साथ-साथ आयु, विद्या, यश और बल भी हमें अनायास प्राप्त होते हैं । चूँकि ये अनायास मिलते हैं इसलिये हम समझते हैं कि यह ख़ुदा की नियामत है, भगवान की कृपा है । लेकिन ये भगवान तो हमारा अहं ही है जो हमें ये सब कुछ दे रहा है । अहं के नष्ट या समाप्त हो जाने से ये सब कुछ नहीं मिल सकता । अहं के विसर्जन का अर्थ अहं का त्याग या नाश नहीं है ।
भारतीय मनीषा ने इस अहं के विसर्जन के लिये बड़े चिंतन के बाद कुछ और उपाय भी खोज निकाले हैं । योग साधना में समाधि, काव्य में साधारणीकरण, ईश्वर की उपासना में भक्ति आदि कुछ ऐसे ही उपाय हैं जिन के द्वारा अहं का विसर्जन होता है । यहाँ विसर्जन का अर्थ विशेष प्रकार से स्रजित होना है, नष्ट या समाप्त हो जाना नहीं । यह दूसरी बात है कि कुछ समय के लिये जब तक समाधि की अवस्था रहती है, जब तक रसावस्था रहती है या जब तक हम भक्ति में मगन रहते हैं तब तक के लिये यह (अहं) जिसका ध्यान कर रहे हैं उसमें, या विभावादि में अथवा भगवान में लीन हो जाता है । इस लीनता के बाद यह और ज्यादा निखर कर, और अधिक विस्तृत होकर या और अधिक शक्तिशाली होकर निकलता है । जब ध्यान में अपने ध्येय, काव्य में विभावादि या भक्ति में भगवान के साथ तादात्म्य हो जाता है तब दूसरे को बाहर नहीं अपने भीतर अनुभव करते हैं । इसी को तल्लीनता कहते हैं । धीरे-धीरे इस समाधि, रसदशा या भक्ति में तल्लीनता का अभ्यास हो जाने पर हम ध्येय, विभावादि या भगवान को ही नहीं इस पूरे विश्व को भी अपने भीतर अनुभव करने लगते हैं । तब हमारे और दूसरे के अस्तित्व में कोई भेद नहीं रहता । हमारी भेद-बुद्धि नष्ट हो जाती है । यह ख़ुदी की बुलन्दी की चरम सीमा है । दूसरे के अस्तित्व के साथ जुड़ कर हमारा अस्तित्व दो गुना हो जाता है । इस अभ्यास के द्वारा जितने पदाथों को हम अपने भीतर अनुभव करते जाएँगे हमारा अस्तित्व भी उतने ही गुना विशाल शक्तिवान होता जायेगा । धीरे-धीरे सम्पूर्ण विश्व हम में समा जायगा और सम्पूर्ण विश्व की शक्तियाँ हमारी शक्तियाँ बन जायेंगी और अपने अहंकार को दूसरों में बिखेरने से हम पूरे विश्व में समा जायँगे । अहंकार की इस दशा में पहुँचे व्यक्ति को किसी बाह्य पदार्थ की अपेक्षा नहीं रहती । वह निरपेक्ष व्यक्ति किसी का हित या अहित नहीं करता । अहंकार की इस अवस्था को आत्मा (सांख्य का पच्चीसवाँ तत्त्व) और ब्रह्म (वेदान्त में) कहते हैं । ऐसा ही व्यक्ति रसदशा में कवि, ज्ञान दशा में मनीषी, भक्ति की दशा में परिभू और समाधि की दशा में स्वयंभू होता है ।
सब कुछ को अपने भीतर अनुभव करने की इस दशा में, बाहर के पदार्थों को अनुभव करने के द्वारा अपने को अनुभव करने की स्वाभाविक गति पर विराम लग जाता है । इसकी गति अवरुद्ध हो जाती है । और यह विज्ञान का नियम है कि बल पूर्वक जब कोई गति रोकी जाती है तो बल हटने के बाद वह गति उद्दाम हो जाती है । जैसे बाँध में रोके गये पानी का वेग बाँध के द्वार खुलने पर और अधिक तीव्र हो जाता है । जैसे वह जल, रोकने वाली शक्ति के बल को अपने में भर लेता है और अपने वेग के साथ सब कुछ को बहा ले जाता है । वैसे ही समाधि आदि से अवरुद्ध गति वाला यह अहंकार भी सभी मनुष्यों को अपने साथ बहा ले जाने में सक्षम हो जाता है । ऐसे व्यक्ति की बात सभी मानते हैं, बिना कहे सब उसकी बात जैसे समझने लगते हैं । मानों सब उसके आज्ञाकारी हों । ऐसे व्यक्ति का कोई काम नहीं रुकता । इसका बल उस व्यक्ति के सभी कर्मों में परिलक्षित होता है । कभी-कभी तो यह रुका हुआ अहंकार रोकने वाली शक्ति का भी अतिक्रमण कर जाता है । तब सारे बाँध टूट जाते हैं । ध्याता ध्येय से बड़ा हो जाता है, भावक विभावादि से आगे निकल जाता है और भक्त भगवान से भी बड़ा हो जाता है । तब अपनी प्रतिज्ञा भूल कर भगवान को रथ का पहिया उठाना पड़ता है । तभी ख़ुदा भी उस बन्दे से पूँछता है, ‘बता तेरी रजा क्या है’ ।
अभिमान इसी अहंकार का रजोगुणी रूप है । अभि (अतिरिक्त) मान (मानना) । कुछ लोग अहंकार की अनुभूति को कुछ अधिक ही मान्यता देने लगते हैं । यह स्वाभाविक या अनायास प्रक्रिया नही है । अहंकार तो अनायास अस्तु सतोगुणी होता है । इससे किसी को दुःख नहीं मिलता । किन्तु जब यह अहं की अनुभूति वैचारिक स्तर पर आती है तो विचारों के संबंध से इसको अतिरिक्त गति प्राप्त हो जाती है, इसमें बुद्धि (रजोगुणी) का बल लग जाता है । फिर इसकी गति सदैव एक सी नहीं रहती । इसे निरन्तर (ऐक्सीलरेशन) की आवश्यकता रहने लगती है । यह ऐक्सीलरेशन मिलता है दूसरों के द्वारा उसके अस्तित्व को स्वीकृति मिलने से । इसीलिये अभिमानी लोग प्रायः चाटुकारिता पसन्द करते हैं । लोग इनकी हाँ में हाँ मिलाते रहैं तो ठीक है अन्यथा इनकी गति टूटने लगती है और वे दुखी हो जाते हैं । यही अभिमान है । दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि बुद्धि (रजोगुणी) के संसर्ग से अहंकार ही अभिमान बन जाता है । अभिमान सदैव अपने और दूसरों के दुःख का कारण होता है ।
अभिमान अनुभूति से नहीं विचार से उत्पन्न होता है । अभिमानी व्यक्ति पहले अपने होने के बारे में सोचता है । फिर दूसरों के होने के बारे में सोचता है । उसकी संवेदनशीलता विचारों के नीचे दब जाती है । वह दूसरे के अस्तित्व को अनुभव नहीं करता अतः अपना अस्तित्व भी उसे अनुभव नहीं होता । हाँ, वह दूसरे के और अपने अस्तित्व के बारे में सोचता है । अतः उसे अपने और दूसरे में अन्तर दिखने लगता है । वह अपने को दूसरों से अतिरिक्त या अधिक और अलग मानने और दिखाने लगता है । दूसरों के होने मात्र से उसे अपने होने की अनुभूति नहीं होती । अपितु दूसरों के द्वारा उसके होने को जब मान्यता मिलती है, तभी उसे अपने होने की अनुभूति होती है । चूँकि उसके होने की अनुभूति दूसरों पर निर्भर करती है । अतः उनका सुख-दुःख भी दूसरों पर निरर्भर करता है । यदि दूसरे उसे मान्यता नहीं देते तो उसे लगता है जैसे मैं कुछ हूँ ही नहीं । अतः अभिमानी व्यक्ति प्रायः कहते मिलेंगे कि उसने मुझे एक बार भी नहीं पूँछा, जैसे मैं कुछ हूँ ही नहीं । मैं उसके घर गया मगर उसने मुझसे चाय तक के लिये नहीं पूँछा, उसने मुझे नमस्ते तक नहीं की, मैने उसके लिये इतना किया लेकिन वह मेरे लिये कुछ नहीं करता, वह अपने को समझता क्या है, आखिर मेरा भी कुछ वज़ूद है । मूल बात यह है कि ऐसे व्यक्ति सदा दूसरों को गलत और अपने को सही साबित करने में ही लगे रहते हैं । ऐसे व्यक्ति असन्तुष्ट, निराश और ऋणात्मक विचारों वाले होते हैं । जब उन्हैं अपने दुःख का कोई बाह्य कारण नहीं मिलता तो अक्सर वे भाग्य को, भगवान को, वख़्त को, जमाने को और दुनिया को कोसते हुए मिलेंगे । मानो उन्ही का भाग्य ख़राब हो और सबका अच्छा हो, जैसे भगवान सबकी सुनता हो उन्ही की न सुनता हो, उन्हें लगता है भगवान बड़ा अन्यायी है । वे प्रायः दूसरों के साथ अपनी तुलना करते हुए कहते मिलेंगे कि देखो वह भगवान को गालियाँ देता है या भगवान को नहीं मानता मगर भगवान उसी को सुख दे रहा है और मैं इतनी पूजा-पाठ करता हूँ मगर पता नहीं भगवान जाने कहाँ सो रहा है । आजकल भले आदमी का तो जमाना ही नहीं है । किसी के साथ कुछ भी करो लेकिन सब बेकार । बेईमान मजा लूट रहे हैं, ईमानदारों का जमाना ही नहीं हैं । उन्हैं न किसी देवता में आस्था रहती है, न किसी साधु-सन्त या पण्डित और ज्योतिषी में । वे संतुष्टि प्राप्त करने के लिये सभी देवताओं, साधु-सन्तों, पण्डितों और ज्योतिषियों को आजमाते रहते हैं । शायद कहीं से उन्हें संतुष्टि और शान्ति मिल जाय । किसी से तो उनका काम बनेगा । यही सोच कर वे इधर से उधर भागते हैं । भटकना इनकी नियति बन जाता है ।
अभिमानी अपने सुख-दुःख का कारण बाहर और दूसरों में मानते हैं । वे कभी अपने भीतर नहीं झाँकते । अहंकारी व्यक्ति की दृष्टि जहाँ अन्तरमुखी होती है वहीं अभीमानी व्यक्ति की दृष्टि बहिर्मुखी होती है । अहंकारी हर बात का कारण अपने भीतर खोजता है, अभिमानी हर बात का कारण बाहर खोजता है । अहंकारी आदमी प्रेम में समर्पण करता है । इसके विपरीत अभिमानी व्यक्ति प्रेम में समर्पण चाहता है । अहंकारी को सदैव अपने कर्त्तव्यों और दूसरे के अधिकारों की चिन्ता रहती है जबकि अभिमानी केवल अपने अधिकारों और दूसरे के कर्त्तव्यों के प्रति सावधान होता है । जहाँ अहंकारी व्यक्ति सुख के मामले में आत्म निर्भर होता है वहाँ अभिमानी का सुख दूसरों पर निर्भर रहता है । अतः वह कभी सुखी और कभी दुखी रहता है । जिस सदाचार और सदाशयता का पालन अहंकारी स्वभावतः करता है, अभिमानी उसका पालन विचार पूर्वक और सायास करता है । अभिमानियों का भाग्य जन्मपत्रियों या हाथ लकीरों में कैद रहता है, उनका दुःख दूसरों के व्यवहार में निहित रहता है । उनका सुख भी दूसरों पर ही निर्भर करता है । वे बाह्य चीजों में ही सुख मानते हैं । बड़े-बड़े पद, ऊँची-ऊँची कुर्सियाँ, बहुत सा धन, बड़ी-बड़ी गाड़ियों में उनका सुख गिरवी रहता है । उसे पाने के लिये वे एड़ी-चोटी एक कर देते हैं ।
अभिमानी व्यक्ति बहुत एक्टिव होते हैं । वे दूसरों को अपना वज़ूद दिखाने के लिये जाने क्या -क्या नहीं करते । वे तरह-तरह के दिखावे करते हैं । तरह-तरह के काम करते हैं । ऐसे लोग कभी-कभी तो बहुत बड़े-बड़े काम कर जाते हैं । वस्तुतः अभिमानी व्यक्ति में दूसरों के प्रति एक प्रतिस्पर्धा का भाव उत्पन्न होता है । वह किसी से पीछे नहीं रहना चाहता । फलतः वे दुनिया की अंधी दौड़ में फँस जाते हैं । अहंकारी व्यक्ति की भाँति वे कोई नई राह नहीं निकालते अपितु पहले से बनी राह पर ही दौड़ कर दूसरों से आगे निकलना चाहते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे लोग बड़े ऊर्जावान होते हैं । किन्तु उनकी सम्पूर्ण ऊर्जा की उपलब्धि उनके श्रम के मुकाबले बहुत थोड़ी होती है । जबकि अहंकारी की उपलब्धियाँ उनके श्रम के मुकाबले बहुत अधिक होती हैं ।
अभिमानी लोग दूसरों को इसलिये समझते और पूँछते हैं ताकि दूसरे भी उन्हैं समझें और पूँछें । उनके सारे रिश्ते-नाते फ़ॉर्मल होते हैं । अतः ये लोग बड़े व्यवहार कुशल होते हैं । इसके लिये वे दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये गये व्यवहार और अपने द्वारा दूसरों के प्रति किये गये व्यवहार का पूरा व्यौरा याद रखते हैं । ऐसे लोग समाज में अपने को स्वीकृत कराने के लिये जाने कैसे-कैसे धत करम करते हैं । ये दूसरों का होना अनुभव नहीं करते अपितु अपना होना दूसरों को अनुभव कराना चाहते हैं । अभिमानी व्यक्ति सदैव अपने गुण और दूसरों के दोष देखता है । ऐसे लोग कभी सुखी नहीं रहते । दूसरों से उनकी अपेक्षाएँ बहुत अधिक बढ़ जाती हैं । किन्तु सभी अपेक्षाएँ तो पूरी नहीं हो जातीं । परिणामतः वे प्रायः दुख का अनुभव करते रहते हैं । ऐसे लोग निरन्तर दूसरों की बुराई-भलाई करने में लगे रहते हैं । ये ख़ुद को नहीं दूसरों को ही अधिक देखते रहते है । इन्हें सब के भीतर ख़ामियाँ ही दिखाई देते हैं । ये कभी दूसरों को ,कभी वख्त को, कभी जमाने को, कभी समाज को कभी भाग्य ही को कोसते रहते हैं । मूल बात ये है कि अभिमानी व्यक्ति कभी सुखी नहीं रहते ।
अहंकार और अभिमान के बीच एक चीज़ और होती है जिसे आत्मगौरव कहते हैं । यह ज्ञान-गुण संपन्न और जाग्रत अहंकार वाले व्यक्तियों की शोभा होता है । ऐसे व्यक्ति ही लोक शिक्षक होते हैं । ये ही किसी को शाप या वरदान देने में सक्षम होते हैं । ऐसे व्यक्तियों का आत्मनियन्त्रण अपरिमित होता है । ऐसे व्यक्तियों को आसानी से क्रोध नहीं आता । किन्तु जब कोई दुष्ट मदान्ध होकर ऐसे व्यक्तियों को अकारण कष्ट देता है या अपने घमण्ड में चूर होकर धर्म का, आचार का या सदाशयता का उल्लंघन करता है तब इनका सात्विक क्रोध उस दुष्ट का नाश कर देता है । सात्विक क्रोध का उद्देष्य किसी को दुःख देना या किसी के द्वारा दिये गये दुःख का बदला लेना नहीं होता अपितु उसका उद्देश्य लोक शिक्षा होता है । ऐसे व्यक्तियों के द्वारा दिया गया शाप दण्ड नहीं शिक्षा कहा जाता है । मराठी भाषा में शिक्षा का आज भी यही अर्थ है । संस्कृत भाषा में भी शिक्षा और दण्ड अनेक स्थानों पर पर्याय के रूप में मिलते हैं । आत्मगौरव से युक्त इन स्वाभिमानी व्यक्तियों का क्रोध जहाँ निजी बदले की भावना से न होकर लोक शिक्षा के लिये होता है वहीं अभिमानी व्यक्तियों का क्रोध निजी बदले की भावना से होता है । इसे रजोगुणी क्रोध कहते हैं । इसी प्रकार दोनों के अन्य मनोविकारों को भी समझना चाहिये ।
पहले कह चुके हैं कि अहंकार जब बुद्धि को घेरता है तो रजोगुणी अभिमान बन जाता है । और यही अभिमान जब बुद्धि का अतिक्रमण करके मन को भी घेर लेता है तो यही घमण्ड बन जाता है । इस प्रकार घमण्ड अहंकार का तमोगुणी रूप है । घमण्डी लोगों की बुद्धि मन के पीछे चलती है । ये बड़े भावुक और मन के गुलाम होते हैं । आत्मनियन्त्रण तो इनको होता ही नहीं । छोटी-छोटी बातों पर क्रोध करना इनका स्वभाव होता है । इनका क्रोध परपीड़न के लिये होता है । जिस प्रकार अहंकारी अपने और दूसरे के अस्तित्व को एक जैसा समझता है और अभिमानी अपने और दूसरे के अस्तित्व को पृथक्-पृथक समझ कर अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझता है उसी प्रकार घमण्डी दोनों के अस्तित्व को पृथक् समझने के साथ-साथ दूसरों को तुच्छ समझता है । दूसरों के प्रति यह तुच्छता की धारणा ही उसे परपीड़क बनाती है । यहीं से हमारा पंथ ही श्रेष्ठ है और सभी पंथ तुच्छ हैं, हमारी भाषा ही श्रेष्ठ है और भाषाएँ तुच्छ हैं आदि विचार उत्पन्न होते हैं । वह सभी को श्रेष्ठ बनाने की कोशिश में परपीड़न करने लगता है । जिस प्रकार अहंकार का परिणाम सुख और अभिमान का परिणाम दुःख है उसी प्रकार घमण्ड का परिणाम विनाश होता है । यह मनुष्य की विचार शक्ति को नष्ट कर देता है और ‘बुद्धि नाशात् प्रणश्यति’ । औरंगज़ेब सोचता था इस्लाम ही श्रेष्ठ पंथ है अतः सभी को इस्लाम क़बूल करना चाहिये । हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया । गुरु गोविन्द सिंह को इस्लाम कु़बूल करने का संदेश भेजा । नहीं मानने पर उनके बेटों को दीवार चिनवा दिया । किन्तु गुरु ने इस्लाम क़बूल नहीं किया । आज औरंगजेब के वंशजों का कहीं पता नहीं है किन्तु गुरु के शिष्यों की फ़ौज दुनिया में फैल रही है और वाहे गुरुजी दी फ़तह का उद्घोष कर रही है । ऐसे लोग दूसरों की बुराई करने के साथ ही आत्म प्रसंशा में लगे रहते हैं । ये केवल अपने अधिकारों, के बारे में ही सोचते रहते हैं । कभी अपने कर्त्तव्य और दूसरों के अधिकार को नहीं सोचते ।
मोह और मूढ़ता घमण्ड के ही पर्याय हैं । घमण्डी व्यक्ति अनेक प्रकार के भ्रमों में जीते हैं । जैसे वे सर्व शक्तिमान हैं, वे किसी का कुछ भी बिगाड़ सकते हैं किन्तु उनका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता । संसार की सारी चतुराई उन्ही में है । वे जो और जिस प्रकार सोचते हैं उससे अलग और दूसरी तरह दुनियाँ में कोई सोच ही नहीं सकता । प्रायः ऐसे व्यक्ति अकारण ही बड़ों का अनादर, उनकी अवज्ञा करने और नियमों को तोड़ने में अपनी शान समझते हैं । जानबूझ कर सड़क के नियमों का पालन न करना, कार में सीट बैल्ट न बांधना, मोटरसाइकिल चलाते में हैल्मैट न पहनना, महिलाओं और वृद्धों के लिये सीट न छोड़ना आदि घमण्डी लोगों का स्वभाव होता है और कदाचार, दुराशय, बलात्कार, झूठ, बात से पलट जाना आदि इनके सामान्य लक्षण होते हैं ।
अभिमानी व्यक्ति जब दूसरे को अनुभव किये बिना ही अपने होने का अहसास कराना चाहता है । (किन्तु ऐसा होता नहीं है) तो अधिकांश अभिमानी व्यक्ति अपनी और दूसरे की क्षमता का आकलन किये बिना ही दुनिया की अंधी दौड़ में शामिल हो जाते हैं । फलतः वे दौड़ में हार जाते हैं और कभी-कभी हँसी के पात्र भी बन जाते हैं । तब अभिमान के चोटिल होने पर (दूसरों के द्वारा स्वयं को स्वीकृति न मिलने पर) मनुष्य में एक प्रकार की हीन भावना उत्पन्न होती है । यह हीन भावना ही घमण्ड का कारण बनती है । अनेक मानसिक रोगों का प्रारंभ भी यहीं से होता है ।
प्रायः कुछ बच्चों में बचपन से ही यह भावना घर कर जाती है कि मुझे घर में कोई नहीं पूँछता, मुझे कोई नहीं चाहता । ऐसे बच्चे अपनी अहमियत दिखाने के लिये तरह-तरह के उत्पात करते हैं । फलतः अपने उत्पात के कारण सभी के अप्रिय बनने लगते हैं । तब उनकी यह धारणा कि मुझे कोई नहीं चहता, और पुष्ट होने लगती है । ऐसे बच्चे नई-नई जिद ठानते हैं और अपनी अहमियत दिखाने के लिये रोकर के या तोड़-फोड़ कर के घर के लोगों को झुकाते हैं । वस्तुतः इस तरह वे अपने होने को अनुभव कराते और करते हैं । यह एक प्रकार की हीन भावना ही है जो खीझ और क्रोध के साथ मिल कर स्वयं उस व्यक्ति को तथा दूसरों को भी दुख देती रहती है । यही सब प्रकार के मानसिक रोगों की जड़ है । बहुत से घरों में नवविवाहिताओं में भी यह हीनभावना घर कर जाती है फलतः पूरे परिवार की शान्ति भंग हो जाती है । कभी-कभी कोर्ट कचहरी तक नौबत आ जाती है । इसी हीन भावना के कारण बहुत लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं । प्रायः पति-पत्नी के झगड़े या दहेज के अधिकांश मुकदमे इसी हीन भावना का परिणाम होते हैं । ऐसे लोग दूसरों को झुकाने में ही अपने होने की अनुभूति कर पाते हैं । धीरे-धीरे यह उनकी आदत बन जाती है । दूसरों को झुकाने में उन्हें एक प्रकार की सुखानुभूति होती है । यहीं से परपीड़न और दूसरों को तुच्छ समझने की प्रवृत्ति जन्म लेती है । जिसे घमण्ड कहते हैं ।
घमण्ड में व्यक्ति की सोच एकांगी हो जाती है । घमण्डी व्यक्ति की सत्य को जानने और समझने की इच्छा ही नहीं रहती । क्योंकि वह समझता है कि वह जो समझ रहा है, वही सही है । अपनी भावुक सोच के द्वारा वे जो कुछ मान लेते हैं उसे जाँचने-परखने की वे आवश्यकता ही नहीं समझते । वे अपनी मनोभावना के अनुरूप ही किसी चीज़ को समझते हैं, और किसी बात का अर्थ भी अपनी मनोभावना के अनुरूप लगाते हैं । उनके पास बातों को जाँचने और परखने का धैर्य ही नहीं होता । ऐसे लोग परपीड़न के नए-नए मार्ग खोजते रहते हैं । इसके लिये वे झूठ का सहारा लेने में भी नहीं हिचकिचाते । अतः उनमें क्षमा, आत्मनियन्त्रण, आस्तेय, शौच, बुद्धि आदि धर्म के लक्षण भी नहीं होते । धीरे-धीरे यह घमण्ड मनुष्य की संपूर्ण चेतना को ही मण्डित कर लेता है ।
रावण भी बड़ा भावुक था । उसकी बहन शूर्पनखा नाक-कान कटने के बाद जब रावण के पास पहुँची तो बहन की हालत देख कर वह भी बड़ा दुखी हुआ । उस दुःख ने क्रोध को जन्म दिया । उसने बहन से पूछा तेरी ये हालत किसने की ? मैं उसे भयंकर दण्ड दूँगा । क्योंकि उसने तेरा नहीं महान रावण का अपमान किया है । और जब सुना कि वन में भ्रमण करने वाले राम और लक्ष्मण ने उसका ये हाल किया है तो क्रोध से आग बबूला हो उठा, स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रहा, बुद्धि नष्ट होगई । कहा कि एक तुच्छ मनुष्य का इतना साहस कि मेरी बहन का इतना बड़ा अपमान करे । वह सीता का हरण कर लाया । एक बार भी उसने शूर्पनखा से यह नहीं पूछा कि उनने तेरी ये हालत क्यों की और नही किसी के द्वारा वास्तविकता जानने की चेष्टा ही की । क्यों कि महान रावण की बहन तो कभी ग़लत कर ही नहीं सकती अतः कारण जानने की आवश्यकता ही नहीं । वह कुछ भी करे जायज है । क्योंकि वह रावण की बहन है । फिर कथा सब जानते हैं और परिणाम भी । वस्तुतः राम ने रावण को नहीं मारा । राम तो निमित्त मात्र थे । रावण को तो उसके घमण्ड और कर्मों (विचार, भाव आदि) ने मारा ।
अहंकारी व्यक्ति के सभी कर्म सतोगुणी होते हैं, अभिमानी के रजोगुणी तथा घमण्डी के तमोगुणी होते हैं । यहाँ उनके कर्म से तात्पर्य उनके विचारों (सोच), उनकी इच्छाओं, और उनकी भावनाओं आदि से है । अहंकारी किसी पर दया नहीं करता, सहयोग या सहायता करता है । अभिमानी दया करता है । वह दूसरे की स्थिति देख कर अपनी सामर्थ्य का अनुभव करता है फिर अपनी सामर्थ्य के दर्प में उसका कुछ हित करता है । घमण्डी तो बस अहसान करता है और बाद में उसकी मनमानी कीमत बसूलना चाहता है । अहंकारी व्यक्ति अपनी सहज गति से निरन्तर आगे बढ़ते रहते हैं । वे स्वयं आगे ब़ढ़ते हैं, दूसरों को भी अपने साथ आगे ले जाने का प्रयास करते हैं । किन्तु अभिमानी प्रतिस्पर्धा करता है और सबसे आगे निकल जाना चाहता है । अपने से आगे और अपने बराबर भी वह किसी को नहीं देखना चाहता । जब कि घमण्डी दूसरों से द्वेष करता है । वह न स्वयं आगे बढ़ता है और न दूसरों को आगे बढ़ने देना चाहता है । वह तो दूसरे की टाँग तोड़ कर समझता है कि वह आगे बढ़ गया है । दूसरे की नाव में छेद कर के वह समझता है कि उसे भव सागर पार समझा जायगा । अहंकारी व्यक्ति को समाज जो सम्मान देता है, उसे वह समाज की अपने प्रति देन मानते हैं । वे जानते हैं कि यह सम्मान उनका अपना नहीं है, समाज का है जो उसके पास समाज की धरोहर है । समाज चाहे तो उसे कभी भी वापस ले सकता है । सम्मान न रहने पर भी वह प्रसन्न रहते है । अभिमानी व्यक्ति को समाज में जब सम्मान मिलता है तो वह उसे अपनी बपौती समझता है । जब समाज उससे वह वापस लेता है तो वह बहुत छटपटाता है, कभी-कभी तो समाज द्वारा कहीं उसका सम्मान छीन न लिया जाय इसको सोच कर बहुत तनाव ग्रस्त रहता है । अहंकारी व्यक्ति ज्ञान और संतोष को अपनी शक्ति समझता है । अभिमानी धन और तृष्णा को अपनी शक्ति समझता है और घमण्डी शारीरिक बल और हथियारों को अपनी ताकत समझता है । घमण्डी को समाज पहले तो सम्मान देता ही नहीं यदि स्वभाववश या भय या प्रेम वश अथवा चाटुकारितावश उसे कुछ सम्मान मिलता भी है तो उसे वह अपनी महानता का फल समझता है । अहंकारी व्यक्ति को कभी कोई चिन्ता नहीं घेरती । विपत्तियों में उसकी बुद्धि बादलों में बिजली की तरह चमकती है । जबकि अभिमानी व्यक्ति सदैव तनावग्रस्त रहता है और घमण्डी सदैव चिन्ता ग्रस्त । इसीप्रकार अहंकारी व्यक्ति किसी भी बात को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न ( प्रेस्टिज इशू) नहीं बनाता, जबकि अभिमानी प्रतिष्ठा के लिये घुटता-पिसता रहता है और घमण्डी हर छोटी से छोटी बात को भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर मुहुँ की खाता रहता है । विपत्तियों की आँधी में अहंकार घास की तरह बिछ जाता है, अभिमान वृक्ष की तरह टूट जाता है और घमण्ड तिनकों की तरह बिखर जाता है ।
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– डॉ. अशोक शर्मा
ध्येय
बहुत खूब । बहुत अच्छा लगा । अहंकार, अभिमान और घमंड की अलग अलग परिभाषा । खूब खूब धन्यवाद ।