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ढूँठ

इरे-भरे वक्षों के वन में
एक ढुँठ मुझसे यह बोला–
भैया ! मैं भी हरा-भरा था
मगर आँधियों से लड़ बेठा ।
एक समय था–
शाखों पर कोयल कुका करती थीं,
दुबले-पतले किसी वृक्ष पर पड़ी लताएँ
मुझे देखकर ठण्डी आह भरा करती थीं,
प्रातः से लेकर सन्ध्या तक
मेरी क्षमता की चर्चाएँ
करती ही रहती थीं प्रायः
इस वन की अधिकांश लताएँ,
मेरी फूलक-फुलक पर पक्षी
हँसते थे, चहका करते थे, –
थके हुए पथिकों के भी पर
आकर यहाँ रुका करते थे ।
किन्तु समय की बात कहूँ क्या ?
पुख-दुख तो आते-जाते हैं

May 3, 2022

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