अत्यन्त पुराणपन्थी, संस्कृत-संस्कृति-संस्कारनिष्ठ,ज्योतिष,कर्मकाण्ड
और पौरोहित्य के वातावरण में जनन््में, पढ़ें, बढ़े अशोक शर्मा उस
वातावरण में रमे नहीं। परिवार की परम्परा का निर्वाह करते हुए भी वह
उससे निर्लिंप्त ही रहे | बल्कि वह प्राचीन परम्परा और आधुनिकता के
बीच की कड़ी थे। वह धोती-कुर्ता-गमछा पहनकर पाण्डित्य भी कर लेते
थे और टाई-सूट पहनकर, कॉफी के प्याले के साथ सिगरेट का धुआँ
फेंकते हुए ज्योतिष और कर्मकाण्ड का विवेचन भी कर लेते थे। धर्म
समाज कालेज में हिन्दी का कुशल प्राध्यापन, घर में व्यास गद्दी पर
बैठकर ज्योतिष – विशेषकर फलित ज्योतिष के अनुसार ग्रह-नक्षत्रों के
योग द्वारा भविष्य के फलेच्छुओं की सेवा और कनाडा में भारतीय दर्शन
एवं सांस्कृतिक विषयों पर अत्यन्त गम्भीर व्याख्यान – उनके बहुआयामी
सफल व्यक्तित्व के प्रतीक हैं।
सामान्य औपचारिक परिचय तो हमारा डा0 अशोक शर्मा से बहुत पहले
से था किन्तु सम्बन्धों में निकटता, प्रगाढ़ता और आत्मीयता आई –
वाराणसी के दशाश्वमेघ घाट पर जहाँ हम दोनों की गंगा-स्नान के प्रसंग
में अकस्मात् भेंट हो गई। तभी हमें पता चला कि श्री शर्मा जी इलाहाबाद
विश्वविद्यालय मैं हिन्दी विभाग के प्रोफेसर डा0 लक्ष्मीसागर वार्ष्णय के
निर्देशन में डीएफिल् कर रहे हैं। ड्वा0 वार्ष्णेय मेरे भी गुरुजनों में एक
थे मुझे उन्होंने बी0ए0 कक्षाओं में हिन्दी पढ़ाई थी। 959-54 में इस
प्रकार हम दोनों गुरुआर्य भी हुए। तभी से हमारे बीच एक दूसरे के प्रति
आदर-सम्मान,स्नेह–सौजन्य बढ़ता गया। अनेकों शैक्षिक,सांस्कृतिक,
साहित्यिक आयोजनों में एक दूसरे को सुनने,समझने काअवसर मिला
और उससे हमारे बीच वैचारिक प्रगाढ़ता दृढ़ हुई। डा0 अशोक मैरा
बहुत सम्मान करते थे। मेरा भी उनके प्रति हार्दिक स्नेह-सद्भाव था।
डा0 शर्मा बड़े कर्मठ व्यक्ति थे | पूरे सेवाकाल में वह अलीगढ़ में
स्थायी रूप से कभी नहीं रहे। हाथरस से ही प्रतिदिन आना जाना करते
थे। बसों की अव्यवस्था के कारण प्राय:मैंने उन्हें हवड़ तबड़ की स्थिति
में देखा है |कभी घंटा बजने के बहुत पहले ही आ जाते थे तो कभी घंटा
बजने के बहुत बाद कक्षा में पहुँच पाते थे। दुपहर 2-4 बजे पढ़ाने से
निवृत्त होकर तत्काल वापस हाथरस चले जाते थे।माघ-पौष के दिन हों
या ज्येष्ठ की दुपहरी,उनका यही क्रम रहता था |इतना ही नहीं हाथरस
पहुँचकर तत्काल पैतृक गद्दी पर बैठकर कर्मकाण्ड-ज्योतिष सम्बन्धी
यजमानों की समस्याओं और मित्रों,सुद्ददयजनों की जिज्ञासाओं का
समाधान करते थे। इतने पर भी उनके चेहरे पर परिश्रम थकावट की
शिकन नहीं आत्ती थी। इतना ही नहीं इन सबके साथ अनगिनत पारिवारिक
परेशानियाँ,संघर्षों से भी निपटना होता था। इस प्रकार उनका लगभग
पूरा सेवाकाल अनेक झंझावातों,परेशानियों और कठिनाइयों में ही बीता|
पारिवारिक संघर्षों में व्यस्तता के बावजूद भी उन्होंने शैक्षणिक,आनुसन्धानिक
कार्यों में शिथिलता नहीं आने दी।
हिन्दी भाषा और साहित्य के अन्तस्थल तक पहुँचने के लिए संस्कृत की
पृष्ठभूमि अत्यन्त उपयोगी है। डाए शर्मा अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के
कारण संस्कृत के भी जानकार थे। इसीलिए अलंकार शास्त्र,ध्वनि सिद्धान्त,
रक्त सिद्धान्त आदि के रूप में उन्हें संस्कृत साहित्य शास्त्र का अच्छा
ज्ञान था। इसी से हिन्दी के काव्य शास्त्र पर उनकी अच्छी पकड़ थी।
अनेक अवसरों पर उनके इस काव्य शास्त्र सम्बन्धी ज्ञान को और उसके
साथ इन प्षिद्धान्तों पर उनके मौलिक चिन्तन को मैंने देखा है। कनाडा में
दिये गये उनके भाषणों से सम्बन्धित निबन्ध बहुत हीं वैदुष्यपूर्ण,गम्भीर और
ज्ञानवर्धकहैं।’प्राच्य मंजूवा’में प्रकाशित -अहंकार,अभिमान और घमण्ड’,
‘नानक दुखिया सब संसार’,’योग’आदि निबन्धों में उनका गंभीर मौलिक
चिन्तन सर्वमान्य और सर्वग्राह्म है| शर्माजी के ये निबन्ध न केवल अत्यन्त
उपयोगी हैं अपितु बौद्धिक वर्ग के लिए स्पृष्णीय भी है। इसके अतिरिक्त
अनुसन्धान, समालोचन और कातय्य-द्षेत्र में भी डा0 शर्मा ने बहुत काम
किया हैं। उनके कई काव्य संग्रह अप्रकाशित हैं जिनका हमने अध्ययन नहीं
किया है| इसलिए उस पर कुछ कहना अनधिकार चेष्टा होगी।
इसके अतिरिक्त डा0 शर्मा की ज्योतिष और आयुर्वेद में भी बहुत रूचि थी।
खगोल सम्बन्धी अनेक जटिल समस्याओं पर वह हर समय सोचत्ते रहते थे।
ज्योतिषविदों से विचार विनिमय करते थे,गौष्ठियों का आयोजन करते थे।
फलित्त ज्योतिष की अपेक्षा उनकी गणित ज्योतिष में विशेष अभिरुचि
थीं। इसी प्रकार आयुर्वेद का भी उन्हें विशेष ज्ञान था और जिज्ञासा भी। ज्योतिष
एवं आयुर्वेद पर गत लगभग एक दशक से एक संगोष्ठी वह हाथरस में अवश्य
करते थे जिनमें लोग भी प्रायः भाग लेते थे।इसी अभिकचि की प्रतिपूर्ति के लिए
उन्होंने अपने नवनिर्मित भवन में एक समृद्ध पुस्तकालय और अनुसन्धान केन्द्र
स्थापित किया है। ‘प्राच्य मंजूषा’ पत्रिका का प्रकाशन भी इसी अभिरुचि का
परिचायकहै। डा0 अशोक शर्मा मेरे साथ अध्यापन मेँ सहयोगी तो नहीं रहे हैं
किन्तु लगभग प्रतिदिन मेंट मुलाकात में,गपशप और हाम्त परिहासत में हमने
उनमें एक विशेष प्रतिमा को देखा है| उपर्युक्त विषयोंमें न कंवल उनकी
अभिरुचि थी, बल्कि अत्यधिक जिज्ञासा और अभितृष्णा भी थी।
आज डा0 अशोक जी हमारे बीच नहीं हैं| उनका निधन न केवल हम सब्र
परिजनों के लिए दुःखप्नद है, बल्कि हिन्दी साहित्य, ज्योत्तिष और आयुर्वेद
विषयों के लिए अपूरणीय क्षति भी है।
पूर्व अध्यक्ष संस्कृत विभाग
धर्म समाज कालेज, अलीगढ़
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