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डा० गोपाल

दिनांक 05 फरवरी, 202 को डा0 राजेशकुमार का फोन आया — “आपकी अस्वस्थता कापता चलने पर डा0 अशोक शर्मा आपसे मिलने आगरा आ रहे हैं | मैं भी उन्हीं के साथ आऊँगा। यह जान कर बहुत अच्छा लगा | अच्छा लगने की वजह भी थी। “अभिनव प्रसंगवश’ काअक्टूबर-दिसम्बर 2042 का ताजा अंक | इसमें डा0 ललित शुक्ल के आत्मवृत्त की तीसरी किस्त छपी है – “यादों के वातायन” | डाए शुक्ल ने उत्तमनगर, नई दिल्ली में एक प्लाट खरीदा। मकान बनवाने के बाद खाली पड़ीं जगह में अनार, नीबू, अमरुद, केचनार आदि के कुछ पौधे लगा दिए। उनमें दो पेड़ आम के थे। पेड़ बड़े हुए। जब वे बौराते, उन पर टिकोरे (अमियाँ) आते, तो सारा परिवार खुशी से झूम उठता, परन्तु परेशानी भी कम नहीं थी। लोग समय-असमय बेजझिझक मांगने चले आते, कभी आम के पत्ते, तो कभी कच्ची डाल | इन फलदार तरुवरों को पत्थरॉ-डण्डों से प्रहार भी सहने पड़ते। आखिरकार तंग आकर शुक्लजी ने आम के दोनों वृक्ष कटवा दिए | पेड़ तो कटगए, लेकिन पूरा परिवार शौक-सन्तप्त हो गया।

डा0 शुक्ल के आत्मवृत्त का यह अंश पढ़कर मेरा मन भी भर आया। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। अलीगढ़ में, घर के सामने खालीं जगह में एक छोटा-सा बगीचा था | मेरे प्रिय शिष्य भवानी शंकर ने केले का एक पेड़ लाकर दिया। उसे रोप दिया | धीरे-धीरे वह एक से अनेक में परिवर्तित हो गया। पैड़ पर इतने केले आते कि हम अकेले नहीं खा पाते थे | उन्हें पड़ोसियों और परिचितों के यहाँ पहुँचा देते। हमें बड़ी-खुशी होती, लेकिन परेशानी भी थी। लोग चाहें जब पत्ते मौँगने चले आते। न नहाने का वक्‍त देखते न खाने का | झौंक में आकर पैड़ कटवा दिए | उसके बाद मन विषाद से भर गया।

जब भी नज़र सामने जाती, पेड़ों की याद सताती।.. जिस अलीगढ़ में जीवन के साठ साल व्यतीत हुए, वह अलीगढ़ छूट गया। न वह घर अपना रहा, न वह जमीन और न वह हँसता-महकता बगीचा।

हम कटे पेड़ की भौति आगरे में आ गिरे अलीगढ़ से अलग हुए कई महीने बीत चले थे। फिर भी मन उदास और खोया-खोया सा | कुछ रास नहीं आ रहा था। ऐसे में कोई प्रियजन पास आए और उल्लास लाए, तो स्वाभाविक है कि अच्छा लगेगा ही।

आज की भागम भाग की जिन्दगी में अपनापन बहुत ही दुर्लभ है। लोग शहर के शहर में भी किसी के पास स्वार्थ-वश ही आ-जा पाते हैं। देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। ऐसे में किसी का पचास-साठ किलोमीटर चल कर मिलने आना कूछ मायने रखता है।

डा0 अशोक शर्मा घर आए, साथ हीं डा0 राजेश कुमार भी | कई घण्टों तक सान्निध्य लाभ प्राच्य मंजूषा मिला | दुपहर का समय था, अतः भोजन भी मिल-जुल कर किया। इस बीच काफी बातें हुईं । डा0 अशोक प्राच्य मंजूषा के प्रति काफी सजग थे। वे चाहते थे कि उसमें अच्छे-अच्छे शोध-आलेख प्रकाशित हों।

अशोक जी ने मेरे लिए एक आयुर्वेदिक दवा भी सजैस्ट की | डाक्टरों ने रीढ़ की हड्डी से सम्बन्धित मेरे इस रोग का एकमात्र उपचार आपरेशन बताया है, किन्तु वह मेरी अवस्था को देखते हुए सहज नहीं। लाम की सम्मावना न दिखने पर भी मैंने सोचा कि मन को समझाने के लिए यह दवा भी खाकर देखूँगा।

विदा के क्षणों में हम तीनों ही भावुक हो उठे। डा0 अशोक बोले, “यह अच्छा ही है कि आपका आवास ग्वालियर रोड के पास है। जब भी ग्वालियर जाना होगा, आपसे अवश्य मिलूँगा ।* भारी मन से हम लोग अलग हुए। रात को पता चला कि लौटते समय सादाबाद के निकट कार में कूछ खराबी आ गई | उसे ठीक कराना पड़ा। इस वजह से घर पहुँचने में विलम्ब हुआ।

ड्राइवर साथ था, फिर भी परेशानी तो उठानी ही पड़ी । यह सोचकर मन दु:खी भी हुआ। डा0 अशोक शर्मा से मेरा परिचिय काफी पुराना था। अलीगढ़ के धर्म समाज कालेज के हिन्दी-विभाग में जाने पर उनसे मिलना होता रहता था, पर वे वहाँ तो बहुत समय बाद पहुँचे | शुरू में मेरा निवास भी हाथरस ही था। मैंने यहाँ के बागला इण्टर कालेज से 4954 ई0 में हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की । तत्पश्चात्‌ मैं अलीगढ़ आ गया। मुझे पी-एच0डी0 के लिए अलीगढ़ जनपद में अठारहवीं तथा उननीसर्वी शताब्दी के साहित्यकारों पर शोध-कार्य करना था। उस समय हाथरस अलीगढ़ जनपद के अन्तर्गत आता था। इसमें दो मत नहीं कि साहित्य-रचना की दृष्टि से हाथरस अत्यन्त समृद्धशाली रहा है। हाथरस में सामग्री जुटाने के लिए काफी दौड़-धूप करनी पड़ी | अशोक जी उन दिनों विद्याध्ययन कर रहे थे। इच्छित शोघसामग्री की खोज-बीन मेँ वे मेरे साथ कृदम मिलाकर चले। ऐसा भी हुआ कि एक ही स्थल के कई-कई चक्कर लगाने पड़े। टौड़ों तक पर चढ़ने की नौबत आई | घूल से ढके बस्तों और सन्दूकों से भी वास्ता जौड़ना जरूरी हो गया।

जब मैं अलीगढ़ से शोध-कार्य के लिए हाथरस जाता था, तब डा0 अज्ञोक शर्मा के पूज्य पिताञ्री पं. बैजनाथ शर्मा जी के भी दर्शन होते थे। जैन गली में स्थित मकान की वह बैठक, उसमें गदृदी पर विराजमान ज्योतिष-विद्‌ पं) बैजनांथ जी और अपनी-अपनी शंका-समस्याओं के समाघान हेतु आने बालों का तांता … आज भी वह सब मेरी आँखों के आगे घूम जाता है। पंडित जी मुझे बड़े स्नेह से पास बैठातें थे और य्थोचित आतिथ्य-सत्कार में कमी नहीं रखते थे |

डा0 अशोक शर्मा अपने सुयोग्य पिता के सुयोग्य सुपुत्र साबित हुए | वे भी ज्योतिष के क्षेत्र में काफी प्रगतिगामी रहे। इसी सम्बन्ध में वे अमेरिका की यात्रा पर जाते रहते थे ।

डा0 अशोक शर्मा ने पं0 बैजनाथ शर्मा प्राच्य विद्या शोध संस्थान की स्थापना की | संस्थान के तत्त्वाधान में समय-समय पर कार्यक्रम आयोजित हुए। डा0 अशोक शर्मा मुझे बुलाना कभी नहीं भूले | यह अलग बात है कि कभी मैं कार्यक्रम में शामिल हुआ और कमी अपरिहार्य कारणों से नहीं पहुँच पाया। मैं जब भी गया, अशोक जी ने मेरा पर्याप्त ध्यान रखा और मुझे मान-सम्मान दिया।

विगत दिनों में जब एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ, तो मन होते हुए भी मैं उसमें नहीं जा सका। डा0 अशोक शर्मा को बाद में जब यह पता चला कि मैं आमंत्रित ही नहीं किया गया था, तो उन्होंने बड़ा दुःख माना और व्यवस्था के प्रति अपना क्षोभ भी व्यक्त किया।

कूछ समय पहले डा0 राजेशकूमार से मेंरी बात हुई। मैं एक लेख में सन्दर्भ देने के लिए गुरु ग्रन्थ साहिब’ को देखना चाहता था | पता चला कि यह ग्रन्थ ‘प्राच्य विद्या शोध संस्थान’ की लाइब्रेरी में मौजूद है। डा0 राजेशकुमार ने तो यहाँ तक सदाशयता बरत्ती कि वे स्वयं ग्रन्थ लाकर मुझे उपलब्ध करा देंगे, किन्तु मैंने ही मना कर दिया, “नहीं, मैं खुद ही किसी प्रकार हाथरस आऊंगा और अन्य देख लूँगा। इस बहाने अशोक जी से भी मेंट हो जाएगी |” पर होनी बड़ी प्रबल है। भेंट होनी ही नहीं थी।

आगरा में बातचीत के दौरान मेरे एक अधूरे आलेख का जिक्र छिड़ गया। अशोक जी काआग्रह था कि उसे शीघ्र ही पूरा करू और ‘प्राच्य मंजूषा’ में मेजूँ | यदि वे आग्रह न॑ करते तो शायद वह आलेख अधूरा ही पड़ा रहता। मैंने उसे पूरा किया और ‘प्राच्य मंजूषा’ में मेज दिया। आलेख अन्यथा गलतियाँ तो होंगी ही शीर्षक से छपा। पत्रिका का वह अंक बाइंडिंग की प्रक्रिया में था, तभी यह दुखद घटना घट गई डा0 अशोक शर्मा नहीं रहे | पता नहीं वह आलेख वे देख पाए अथवा नहीं |

डा0 अशोक शर्मा कुशल प्राध्यापक, ज्योतिष-शास्त्री तथा समर्थ कवि-लेखक ही नहीं, एकअच्छे व्यक्ति भी थे। कौन जानता था कि अशोक होकर भी वे असमय ही अपने आत्मीयजनों को शोक-मग्न कर देंगे । और तो और, सैफ के शब्दों में यह कहने का भी मौका नहीं मिला –

‘थर्की-थकी सी फजाएँ, बुझे -बुझे तारे,

बड़ी उदास घड़ी है, ज़रा ठहर जाओ।

46, गोपाल विहार कालोनी देवरी रोड, आगरा – 28200 मो0 09259267929

May 2, 2022

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