आज भोर के समय टहलते हुए अचानक
पेरों तले दबे गुलाब की आह सुनी तो
पँजा ऊँचा किये तनिक-सा
मैं कुछ ठिठका और कह उठा–
(तुम तो बहुत बड़े निगुनी हों! ।
तुम कबीर की तरह पड़े हो बीच राह में
अगर किसी एड़ी से कोई अंग दबेगा
तो चीखोगे छोड़ चेतना का यह बन्धन
चलने वाले की आँखों को दोष लगेगा।
कहने को तो और बहुत कुछ कहा-सुना
पर, थोड़ा झुका, उठाया, चुमा
फिर यह सोचा–
अरे इतने नाजुक यौवन को कठोर वाणी से
डाँट-डपट कर मैंने इसका मन क्यों नोचा ?’
फिर, अब तो इसकी आहें भी बन्द हो गयीं
चौंक उठा मैं,
फौरन उसका हृदय टटोला
पर वह मेरा उपकार देखकर चुप था,
मुझको कुछ शंकित देखा तो यों बोला–
मैंने जब उसके हाथों में विद्रोह किया तो
झटका देकर मुझे राह में फेंक दिया था ।
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